जैव उर्वरक को सामान्य रूप से सूक्ष्म जीवाणुओं का संग्रह के रूप में जाना जाता है, जिसमें कुछ विशेष तरह के सूक्ष्म जीवाणुओं का प्रयोगशाला में प्रजनन किया जाता है, जो मृदा की गुणवत्ता और फसलों की पैदावार को बढ़ाने में मदद करते हैं। हालांकि दलहनों के लाभकारी प्रभाव जिससे की मिट्टी की गुणवत्ता बढ़ती है, की जानकारी पूर्वकाल से हमारे पुरखे किसानों को भी थी। जैविक नत्रजन स्थिरीकरण की जानकारी हुए करीब 100 वर्षों से भी अधिक समय व्यतीत हो चुका है, लेकिन इस जैविक प्रक्रिया के वाणिज्यिक दोहन की आज आवश्यकता अनुभव की गई है।
जैव उर्वरक के वाणिज्य इतिहास की शुरूआत सन् 1895 से हुई जब दो वैज्ञानिकों ‘श्री नोब और श्री हिल्टनर’ के सहयोग से नत्रजन उत्पाद राइजोबियम कल्चर के रूप में शुरू हुआ। इसके पश्चात एजोटोबैक्टर तथा नील हरित शैवाल तथा अन्य सूक्ष्म जीवों की खोज हुई। एजोसप्रिलम तथा वेसिकुलर अर्बस्कूलर माइकोराइज़ा (वीएएम) अभी हाल की खोज हैं।
भारत में सर्वप्रथम लेग्यूम राइज़ोबियम सहजीविता का अध्ययन हमारे वैज्ञानिक श्री एन वी जोशी ने किया था। इसका सर्वप्रथम वाणिज्यिक उत्पादन सन् 1956 में शुरू हुआ। भारत सरकार की 9वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान कृषि मंत्रालय ने ‘जैव उर्वरक के उपयोग तथा विकास के लिए राष्ट्रीय परियोजना’ के माध्यम से वास्तविक रूप से इसको बढ़ावा देने तथा लोगों में जागरूकता उत्पन्न करने का काम शुरू किया।
मिट्टी में लगातार रसायनों के छिड़काव एवं रासायनिक उर्वरकों की बढ़ती मांग ने पर्यावरण को प्रदूषित करने के साथ-साथ मिट्टी की उर्वरा शक्ति को भी घटाया है| इन रसायनों के प्रभाव से मिट्टी को उर्वरकता प्रदान करने वाले सूक्ष्म जीवों की संख्या में अत्यधिक कमी हो गयी है| जैसे कि, हवा से नाइट्रोजन खींचकर जमीन में स्थिरीकरण करनेवाले जीवाणु राइजोबियम, एजेटोबैक्टर, एजोस्पाइरलम, फास्फेट व पोटाश घोलनशील जीवाणु आदि| इसलिए मिट्टी में इन जीवाणुओं की संख्या बढ़ाने हेतु इनके कल्चर का उपयोग जैविक खादों के साथ मिलाकर किया जाता है| किसी विशिष्ट उपयोगी जीवाणु/कवक/फुन्फंद/ को उचित माध्यम में (जो कि साधरणतः ग्रेनाइट या लिग्नाइट का चुरा होता है) ये जीवाणु 6 माह से एक वर्ष तक जीवित रह सकते हैं| सामान्यतः अधिक गर्मी (40 से ऊपर) में ये जीवाणु मर जाते हैं| जीवाणु कल्चर का भंडारण सावधानी पूर्वक शुष्क एवं ठंडी जगह पर करना चाहिए|
जीवाणु कल्चर को बीज या जैविक खादों के साथ मिलाकर मिट्टी में मिलाने पर खेत में इन जीवाणुओं की संख्या में तेजी से वृद्धि होती है और नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश आदि तत्वों की उपलब्धता में वृद्धि होती है| नाइट्रोजन हेतु राइजोबियम, एजेटोबैक्टर, एसेटोबैक्टर, तथा फोस्फोरस हेतु फोस्फेट घोलनशील जीवाणु कल्चर का प्रयोग किया जाता है|
जैव-उर्वरक विभिन्न प्रकार के मिट्टी जनित रोगों के नियंत्रण में सहायक सिद्ध होते हैं| इसके अतिरिक्त जैव उर्वरकों से किसी भी प्रकार का प्रदुषण नहीं फैलता है और इसका कोई दुष्परिणाम भी देखने में नहीं आया है और न ही इसका प्रयोग करनेवालों पर इनका कोई दुष्प्रभाव देखा गया है| जैव-उर्वरकों के उपयोग करने से रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता में कमी देखी जा सकती है| पिछले कुछ दशकों से निम्न कुछ प्रमुख जैव-उर्वरकों का प्रयोग किसानों द्वारा किया जा है |
राइजोबियम
नाइट्रोजन का अधिकाँश भाग (लगभग 80%) वायुमंडल में विद्यमान है| सूक्ष्म जीवाणु वायुमंडलीय नाइट्रोजन को वायुमंडल से भूमि में पहुँचाने का एक माध्यम है| राइजोबियम दलहनी फसलों की जड़ों में ग्रंथियाँ बनाने की क्षमता रखने वाले उस जीवाणु का नाम है जो की वायुमंडल की नाइट्रोजन का स्थिरीकरण कर उसे पौधों तक पहुंचता है|
राइजोबियम कल्चर का प्रयोग दलहनी फसलों में किया जाता है| राइजोबियम
एक गतिशील जीवाणु होता है, जो आकार में 0.5 माइक्रोन लम्बे व दंडाकार आकृति का होता है| राइजोबियम कल्चर का उपयोग दलहनी फसलों में 5 से 10 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से किया जाता है राइजोबियम कल्चर का उपयोग मिट्टी व बीज के उपचार के लिए किया जाता है|
मिट्टी के उपचार के लिए 750 ग्राम राइजोबियम कल्चर को छाया में 50 किलो ग्राम गोबर की सड़ी खाद में समान रूप से मिलाएं| एक एकड़ खेत के बीजों के उपचार के लिए 150 ग्राम राइजोबियम कल्चर को 300 मि०ली० पानी में घोलें| इसमें बीजों को अच्छी तरह मिलाकर छाया में सुखाकर तुंरत बो लेना चाहिए|
राइजोबियम कल्चर के प्रयोग से फसल का उत्पादन 20-30% तक बढ़ जाता है| राइजोबियम कल्चर के प्रयोग से भूमि में लगभग 30-40 किलो नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर तक बढ़ जाती है| यह आगामी फसलों के लिए बहुत उपयोगी होती है| राइजोबियम कल्चर से चना, मसूर, उड़द, मूँग, अरहर, मटर, मूंगफली, सोयाबीन, ढैंचा, सनई, सेम एवं अन्य सभी दलहनी फसलों को लाभ होता है|
Description and characteristics
Classification
1.
|
Family
|
:
|
Rhizobiaceae
|
2.
|
Genus
|
:
|
Azorhizobium-for stem nodulation
|
Bradyrhizobium
|
|||
Rhizobium
|
|||
Sinorhizobium
|
Morphology
1. Unicellular,
cell size less than 2µ wide, short to medium rod, pleomorphic.
2. Motile
with Peritrichous flagella
3. Gram
negative
4. Accumulate
PHB granules.
Physiology
1.
|
Nature
|
:
|
Chemoheterotrophic,
symbiotic with legume
|
||||
2.
|
C
source
|
:
|
Supplied
|
by
|
legume
|
through
|
photosynthates,
|
monosaccharides,
disaccharide
|
|||||||
3.
|
N
source
|
:
|
Fixed
atmospheric N2
|
4.
|
Respiration
|
:
|
Aerobic
|
||||
5.
|
Growth
|
:
|
Fast (Rhizobium),
slow (Bradyrhizobium)
|
||||
6.
|
Doubling
time
|
:
|
Fast
|
growers
|
–
|
2-4
|
hrs
|
Slow
growers – 6-12 hrs
|
|||||||
7.
|
Growth
media
|
:
|
YEMA
|
एजोटोबैक्टर
एजोटोबैक्टर मृदा में पाया जाने वाला एक मृतजीवी जीवाणु है जो कि अदलहनी फसलों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण में सहायक है| यह जीवाणु लम्बे व अंडाकार आकृति के होते है| इसका उपयोग मुख्यतः धान एवं गेंहूँ की फसलों में किया जाता है| इसके प्रयोग से मिट्टी में 30-40 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर स्थिर हो जाती है| एजोटोबैक्टर का प्रयोग मिट्टी के उपचार, रोपाई एवं बीजों के उपचार के लिए किया जाता है|
एक एकड़ खेत की मिट्टी क उपचार के लिए 750 ग्राम एजोटोबैक्टर को छाया में 25 किलोग्राम सड़ी गोबर की खाद में समान रूप से मिलाएं व जुताई से पूर्व खेत में इसका छिड़काव करें|
रोपाई के समय 1 एकड़ के लिए 450 ग्राम एजोटोबैक्टर को 20-30 ली० पानी में घोल लें| रोपाई वाली पौध की जड़ों को इस घोल में 5 मिनट तक डुबोकर रोपाई करें|
बीजोपचार के लिए एजोटोबैक्टर की 300 ग्राम मात्रा को 300 ग्राम मात्रा को 300 मि०ली० पानी में घोलें| इसमें बीजों को अच्छी तरह से मिलाकर छाया में सुखाकर तुरंत बुवाई करें इसकी यह मात्रा 1 एकड़ के लिए पर्याप्त होती है|
एजोटोबैक्टर से पौधों को नाइट्रोजन के साथ-साथ कुछ विशेष प्रकार के हार्मोन एवं विटामिन्स भी मिलते हैं| एजोटोबैक्टर के प्रयोग से लगभग 10-15 किलोग्राम तक नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर नाइट्रेट में परिवर्तित होकर पौधों को मिल जाती है| इसके इस्तेमाल से फसल का उत्पादन भी लगभग 10-20 प्रतिशत तक बढ़ जाता है|
धान, गेंहूँ, जौ, बाजरा, सरसों, जूट ज्वार, केला, अंगूर, लीची, पपीता तरबूज, खरबूजा, एवं सब्जियाँ-आलू, टमाटर, गोभी, प्याज, भिन्डी मिर्च, इत्यादि को एजोटोबैक्टर से लाभ मिलता है|
एसीटोबैक्टर
यह जीवाणु गन्ने की फसल में नाइट्रोजन स्थिरीकरण में सहायक है| एसीटोबैक्टर
लम्बा एंव आकार में 0.7-0.9x0.2 माइक्रोन होता है| यह अंततः सहजीवी के रूप में गन्ने की फसल में पाया जाता है| एसीटोबैक्टर फसलों व पौधों की जड़ों के आस-पास विखंडित होकर भूमि की नाइट्रोजन को नाइट्रेट में बदलकर पौधों तक पहुंचाते हैं| एसीटोबैक्टर का प्रयोग मिट्टी व बीज उपचार के लिए किया जाता है|
मिट्टी के एक कोलोग्राम एसीटोबैक्टर एक एकड़ मिट्टी उपचार के लिए पर्याप्त होता है इसे 50 किलोग्राम गोबर की खाद में मिलाकर खेतों में डालें|
एक एकड़ भूमि में बीजोरोपन हेतु 500 ग्राम एसीटोबैक्टर से बीजों का उपचारण करने के बाद तुरंत बीज बो दें|
एसीटोबैक्टर से मिट्टी की उर्वरा शक्ति का विकास होता है| यह रासायनिक खाद के प्रयोग को कम करता है| यह गन्ने व चुकंदर की फसल में उत्पादन वृद्धि के साथ-साथ उसमें शर्करा की मात्रा को भी बढ़ाता है|
एजोस्प्रिलम, एजोटोबैक्टर नामक जैव उर्वरक से काफी मिलताजुलता है| गर्म स्थानों पर उगाई जाने वाली फसलों में जैव उर्वरक का प्रयोग किया जाता है| इनका आकार सर्पिल एवं चक्र के समान होता है और माप में ये 0.7-2-3 माइक्रोन तक होता है|ये पौधों की जड़ों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण करते हैं तथा सहचरी सहजीविता प्रदर्शित करते हैं| एजोस्प्रिलम का प्रयोग भूमि उपचार, बीजोपचार तथा रोपाई के समय भी किया जाता है|
मिट्टी के उपचार हेतु 1500 ग्राम एजोस्प्रिलम को 50 किलोग्राम गोबर की खाद में किसी छायादार स्थान पर समान रूप से मिलाएं| यह मिश्रण तथा रोपाई एक एकड़ भूमि भूमि के लिए पर्याप्त है|
बीजोपचार हेतु 150 मि०ली० पानी में 150 ग्राम एजोस्प्रिलम को घोलकर एक एकड़ क्षेत्रफल में बोए जाने वाले बीज को इससे उपचारित कर छाया में सुखाकर तुरंत बो दें|
रोपाई के लिए 500 ग्राम एजोस्प्रिलम को 20 लीटर पानी में घोलकर मिश्रण बनाएं व रोपाई वाली पौध की जड़ों को इस घोल में पांच मिनट तक डुबाकर रोपाई करें|
एजोस्प्रिलम से नाइट्रोजन स्थिरीकरण की प्रक्रिया को बल मिलता है व फसल का उत्पादन अधिक होता है| एजोस्प्रिलम पौधों की वृद्धि में भी सहायक होता है| एजोस्प्रिलम जैव-उर्वरक से धान, बाजरा, ज्वार, गन्ना, मक्का, चीड़ के वृक्ष, एवं पुष्पीय पौधों में लाभ मिलता है|
फास्फेट विलयकारी जैव उर्वरक
नाइट्रोजन के साथ-साथ फास्फोरस भी पौधों की वृद्धि के लिए आवश्यक पोषक तत्व है| प्रकृति में फास्फोरस हरी खाद, मिट्टी, पौधों तथा सूक्ष्म जीवों में पाया जाता अहि| फास्फोरस विभिन्न कार्बनिक एवं अकार्बनिक यौगिकों के रूप में मिलता है, परन्तु पौधे इस फास्फोरस का उपयोग नहीं कर पाते हैं| पौधों द्वारा फास्फोरस का अवशोषण मुख्य रूप से प्राथमिक ओर्थोफास्फेट आयरन के रूप में होता है|
मिट्टी में पाये जाने वाले लगभग सभी परपोषी सूक्ष्म जीव फास्फोरस विलयीकरण की क्षमता रखते हैं प्रकृति में मिलने वाले अनेक सूक्ष्म जीव वातावरण की फास्फोरस को घुलनशील अवस्था में बदलकर पौधों तक पहुंचाते हैं| ये सूक्ष्म जीव मुख्यतः विषमपोषी होते हैं| फास्फोरस विलयकारी सूक्ष्म जीवों में जीवाणु कवक तथा माइकोराइजा पाए जाते हैं| जीवाणुओं में मुख्यतः बैसीलस, स्यूडोमोनास, आर्थोबैक्टर, फ्यूजेरियम, एस्परजिलस, पेनिसिलियम, राइजोपस तथा स्ट्रेप्टोमाइसिस विलयकारी के रूप में पाए जाते हैं|
फास्फेट विलयकारी सूक्ष्म जीवों से निर्मित इस जैव उर्वरक में जीवाणु मिट्टी में मौजूदा अघुलनशील फास्फेट को घुलनशील बनाकर पौधों तक पहुंचाते हैं क्योंकि फास्फेट का 70-80 प्रतिशत भाग मिट्टी में स्थिर हो जाने के कारण यह पौधों तक नहीं पहुच पाता है| इस जैव उर्वरक से मृदा उपचार तथा बीजोपचार करने पर यह मिट्टी में मौजूदा अघुलनशील फास्फेट को घुलनशील फास्फेट में बदलकर पौधों की जड़ों तक पहुँचता है जो अवशोषित कर लिया जाता है| इन जैव उर्वरकों का प्रयोग मृदा उपचार, बीज उपचार, कंद उपचार तथा रोपाई के लिए किया जाता है|
मिट्टी उपचार- इसके लिए लगभग 1200 ग्राम जैव उर्वरक को 50 किलोग्राम गोबर खाद में मिलाकर समान रूप से मिट्टी में मिला दें और इसके तुरन्त बाद सिंचाई कर दें| जैव उर्वरकों की यह मात्रा एक एकड़ खेत उपचार के लिए पर्याप्त है|
बीज उपचार- इसके लिए 150 ग्राम जैव-उर्वरक को 150 मि०ली० पानी में घोलकर एक एकड़ में बोये जाने वाले बीज को इससे उचारित करें, फिर छाया में सुखाकर तुरंत बो दें|
कंद उपचार: एक एकड़ के खेत में कंद उपचार के लिए 450 ग्राम जैव उर्वरक को ४०-50 लीटर पानी में घोलकर एक एक एकड़ में बोये जाने वाले कद को 10 मिनट तक इसमें डुबोकर, तुरंत बुवाई करें|
रोपाई: रोपाई के लिए 300 ग्राम जैव उर्वरक को 150-20 लीटर पानी में घोलकर रोपाई वाली पौध की जड़ों को इस घोल में 10 मिनट तक डुबोकर फिर रोपाई करें|
जैव-उर्वरक से सभी फसलों एवं पौधों को लाभ पहुंचता है| इसके प्रयोग से फास्फेटिक खाद की मात्रा में कमी आ जाती है और फसल की उत्पादन क्षमता बढ़ जाती है|
जैव उर्वरकों का भंडारण हमेशा ठन्डे स्थान पर करें व इसे सूर्य की रोशनी से बचाकर रखें| इनको रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों से अलग रखें| इनका प्रयोग पैकेट पर अंकित तिथि से पहले करें| जैव-उर्वरकों विशिष्ट फसल के लिए होता है| अतः फसल के हिसाब से ही जैव-उर्वरक का प्रयोग करें|
एज़ोस्पाइरिलम :
यह भी नत्रजन स्थिरीकरण करने वाला एक सूक्ष्म जीवाणु है जो गैर लेग्यूम पौधों के लिए लाभकारी है। यह सूक्ष्म जीवाणु भी जैविक नत्रजन स्थिरीकरण के साथ साथ पादप वृद्धिकारक हारमोंस का स्त्राव करते हें जो अंकुरण से लेकर पौधे की वृद्धि तक में लाभकारी होते हैं।
Classification
Species: (7) Family
– Spirillaceae
1. A. brasilense
2. A. lipoferum
3. A. amazonense
4. A. halopraeferens
5. A. irkense
6. A. dobereinerae
7. A. largimobilis
Morphology
1.
|
Cell
size
|
: Curved
|
rods,
|
1
|
mm dia,
|
size
|
and shape
|
|||
vary
|
||||||||||
2.
|
Accumulate
|
:
|
PHB
|
|||||||
3.
|
Gram
reaction
|
:
|
Negative
|
|||||||
4.
|
Development
of white pellicles
|
:
|
2-4
mm below the surface of NFB medium
|
|||||||
Physiology
|
||||||||||
1.
|
Nature
|
:
|
Chemoheterotrophic,
associative
|
|||||||
2.
|
Sole
carbon source
|
:
|
Organic
|
acids,
|
L-arabinose,
|
D-gluconate,
|
||||
D-fructose,
D-glucose, sucrose, Pectin
|
||||||||||
3.
|
N
source
|
:N2 through fixation, amino
acids, N2, NH4+, NO3-
|
||||||||
4.
|
Respiration
|
:
|
Aerobic,
Microaerophilic
|
|||||||
5.
|
Growth
media
|
:
|
NFBTB
(NFB) medium
|
|||||||
6.
|
Doubling
time
|
:
|
1
|
hr
|
in
|
ammonia
|
containing
|
medium
|
||
5.5 –
7.0 hrs in
malate containing semisolid
|
||||||||||
medium
|
नील-हरित शैवाल
नील-हरित शैवाल तुरंत वाले प्रकाश संषलेषी सूक्ष्म जीव होते है, तो नाइट्रोजन के स्थितिकरण में सहायक हैं| नील-हरित शैवाल को “सायनोबैक्टरिया” भी कहा जाता है| सूक्ष्म जीव गुणात्मक रूप से जीवाणु वर्ग से अधिक विशिष्ठ होता है| इसलिए ये सायनोबैक्टरिया कहलाते हैं| सभी नील-हरित शैवाल नाइट्रोजन के स्थितिकरण में सहायक नहीं होते हैं| मिट्टी में पाई जाने वाली नील-हरित शैवाल प्रजातियाँ बड़े आकार की तथा संरचना में जटिल होती हैं|
नील-हरित शैवाल की कुछ प्रजातियाँ : एनिबिना एजोली, एनाबिना फर्टिलिसिया, एनाबिना लेवेन्छरी, नॉस्टॉक फॉरमीडियम, आसिलेटोरिया, ट्राइकोडेसियम, इत्यादि हैं| नील-हरित शैवाल की इन प्रजातियों में हीटरोसिस्ट युक्त व हीटरोसिस्ट रहित दोनों प्रजातियाँ शामिल है, नील-हरित शैवाल धान की फसल के लिए बहुत उपयोगी हैं|
एजोला
एजोला विश्व भर में पाया जाने वाला एक निम्नवर्गीय पादप हैं| यह मुख्यतः स्वच्छ जल, तालाबों, गड्ढों तथा झीलों में पानी की सतह पर तैरता रहता है| भारत में पाई जाने वाली इसकी प्रजाति एजोला पिन्नोटा है, जिसमें नाइट्रोजन स्थितिकरण की क्षमता कम होती है इसीलिए इनके स्थान पर धान की फसलों के प्रयोग हेतु अन्य प्रजाति एजोला माइक्रोफिलाव केरोलिनिआना का प्रयोग किया जाता है है, जो कि अच्छी नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाली प्रजातियाँ हैं| इनसे फसल की बढ़वार भी तेजी से होती है|
एजोला का प्रयोग धान की फसल में किया जात है| एक एक एकड़ खेत के लिए पौध रोपने के 15 दिन बाद पानी लगाकर उसमें लगभग 10 किलोग्राम एजोला डाल देते हैं| इसके बाद खेत का पानी निकालकर इसे मिट्टी में अच्छी तरह से मिला देते हैं| खेत में दुबारा पानी लगाने पर एजोला के बीज में अंकुरण प्रारंभ हो जाता है, जो कि आगामी फसल के लिए लाभप्रद होता है देश के अनेक भागों में एजोला का प्रयोग धान की फसल में हरी खाद के रूप में किया जाता है| यह नाइट्रोजन के स्थिरीकरण में सहायक है| जिसके फलस्वरूप धान में वृद्धि होती है|
पिछले कुछ वर्षों में जैव-उर्वरकों की आवश्यकता महसूस की गई है, क्योंकि इनके उपयोग से बढ़ते रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता में कमी देखी गयी है| यद्यपि जैव-उर्वरकों के प्रयोग से हम अच्छी एवं गुणवत्ता युक्त उपज प्राप्त कर सकते हैं, परन्तु इसके बावजूद भी आजकल जैव उर्वरक आम किसान आम किसान तक नहीं पहुँच पाया है| किसान आज भी जैव उर्वरक के प्रयोग एवं इससे होने वाले लाभ से अनभिज्ञ है| इस ज्ञान को आम किसान तक पहुंचाने के प्रयास किये जाएँ तो किसानों को उचित लाभ मिल सकता है|
एज़ोटोबैक्टर:
इस सूक्ष्म जीवाणु कल्चर के लाभ का दायरा काफी व्यापक है जिसमें तरह तरह की फसलें जैसे अन्न वाली फसलें, सब्जियां, कपास तथा गन्ना मुख्य रूप से हैं। यह एक स्वतंत्र रूप से रहने वाला सूक्ष्म जीवाणु है जो बिना किसी सहजीवन के नत्रजन का मुक्त रूप से जैविक स्थिरीकरण करता है। यह नत्रजन स्थिरीकरण के साथ साथ पौधों के विकास में काम आने वाले पादप वृद्धिकारक हारमोन और कुछ एंटीबायोटिक्स का भी स्त्राव करता है जिससे जड़ों में होने वाली बहुत सारी बीमारियों की रोकथाम होती है।
-
Morphology
-
Cell
size
|
:Large ovoid cells, size 2.0 – 7.0 x
1.0 – 2.5 µ
|
||
Cell
character
|
:
|
Polymorphic
|
|
Gram
character
|
:
|
Negative
|
|
Physiology
|
|||
1.
|
Nature
|
:
|
Chemoheterotrophic, free living
|
2.
|
C source
|
:Mono, di saccharides, organic acids
|
|
3.
|
N source
|
:N2 through fixation,
amino acids, NH4+, NO3-
|
|
4.
|
Respiration
|
:
|
Aerobic
|
5.
|
Growth
|
:Ashby / Jensen's medium
|
हरी खाद
कृषि में हरी खाद (green manure) उस सहायक फसल को कहते हैं जिसकी खेती मुख्यत: भूमि में पोषक तत्त्वों को बढ़ाने तथा उसमें जैविक पदाथों की पूर्ति करने के उद्देश्य से की जाती है। प्राय: इस तरह की फसल को इसके हरी स्थिति में ही हल चलाकर मिट्टी में मिला दिया जाता है। हरी खाद से भूमि की उपजाऊ शक्ति बढ़ती है और भूमि की रक्षा होती है।
मृदा के लगातार दोहन से उसमें उपस्थित पौधे की बढ़वार के लिये आवश्यक तत्त्व नष्ट होते जा रहे हैं। इनकी क्षतिपूर्ति हेतु व मिट्टी की उपजाऊ शक्ति को बनाये रखने के लिये हरी खाद एक उत्तम विकल्प है। बिना गले-सड़े हरे पौधे (दलहनी एवं अन्य फसलों अथवा उनके भाग) को जब मृदा की नत्रजन या जीवांश की मात्रा बढ़ाने के लिये खेत में दबाया जाता है तो इस क्रिया को हरी खाद देना कहते हैं।
हरी खाद के उपयोग से न सिर्फ नत्रजन भूमि में उपलब्ध होता है बल्कि मृदा की भौतिक, रासायनिक एवं जैविक दशा में भी सुधार होता है। वातावरण तथा भूमि प्रदूषण की समस्या को समाप्त किया जा सकता है लागत घटने से किसानों की आर्थिक स्थिति बेहतर होती है, भूमि में सूक्ष्म तत्वों की आपूर्ति होती है साथ ही मृदा की उर्वरा शक्ति भी बेहतर हो जाती है।
आदर्श हरी खाद में निम्नलिखित गुण होने चाहिए
• उगाने का न्यूनतम खर्च
• न्यूनतम सिंचाई आवश्यकता
• कम से कम पादम संरक्षण
• कम समय में अधिक मात्रा में हरी खाद प्रदान कर सक
• विपरीत परिस्थितियों में भी उगने की क्षमता हो
• जो खरपतवारों को दबाते हुए जल्दी बढ़त प्राप्त करे
• जो उपलब्ध वातावरण का प्रयोग करते हुए अधिकतम उपज दे ।
हरी खाद बनाने के लिये अनुकूल फसले :
- ढेंचा, लोबिया, उरद, मूंग, ग्वार बरसीम, कुछ मुख्य फसले है जिसका प्रयोग हरी खाद बनाने में होता है । ढेंचा इनमें से अधिक आकांक्षित है ।
- ढैंचा की मुख्य किस्में सस्बेनीया ऐजिप्टिका, एस रोस्ट्रेटा तथा एस एक्वेलेटा अपने त्वरित खनिजकरण पैर्टन, उच्च नाइट्रोजन मात्रा तथा अल्प ब्रूछ अनुपात के कारण बाद में बोई गई मुख्य फसल की उत्पादकता पर उल्लेखनीय प्रभाव डालने में सक्षम है
हरी खाद के पौधो को मिट्टी में मिलाने की अवस्था
- हरी खाद के लिये बोई गई फसल ५५ से ६० दिन बाद जोत कर मिट्टी में मिलाने के लिये तैयार हो जाती है ।
- इस अवस्था पर पौधे की लम्बाई व हरी शुष्क सामग्री अधिकतम होती है ५५ स ६० दिन की फसल अवस्था पर तना नरम व नाजुक होता है जो आसानी से मिट्टी में कट कर मिल जाता है ।
- इस अवस्था में कार्बन-नाईट्रोजन अनुपात कम होता है, पौधे रसीले व जैविक पदार्थ से भरे होते है इस अवस्था पर नाइट्रोजन की मात्रा की उपलब्धता बहुत अधिक होती है
- जैसे जैसे हरी खाद के लिये लगाई गई फसल की अवस्था बढ़ती है कार्बन-नाइट्रोजन अनुपात बढ़ जाता है, जीवाणु हरी खाद के पौधो को गलाने सड़ाने के लिये मिट्टी की नाइट्रोजन इस्तेमाल करते हैं । जिससे मिट्टी में अस्थाई रूप से नाइट्रोजन की कमी हो जाती है ।
हरी खाद बनाने की विधि
• अप्रैल.मई माह में गेहूँ की कटाई के बाद जमीन की सिंचाई कर लें ।खेत में खड़े पानी में ५० कि० ग्रा० Áति है० की दर से ढेंचा का बीज छितरा लें
• जरूरत पढ़ने पर १० से १५ दिन में ढेंचा फसल की हल्की सिंचाई कर लें ।
• २० दिन की अवस्था पर २५ कि० Áति ह०की दर से यूरिया को खेत में छितराने से नोडयूल बनने में सहायता मिलती है ।
• ५५ से ६० दिन की अवस्था में हल चला कर हरी खाद को पुनरू खेत में मिला दिया जाता है ।इस तरह लगभग १०.१५ टन Áति है० की दर से हरी खाद उपलब्ध हो जाती है ।
• जिससे लगभग ६०.८० कि०ग्रा० नाइट्रोजन Áति है० प्राप्त होता है ।मिट्टी में ढेंचे के पौधो के गलने सड़ने से बैक्टीरिया द्वारा नियत सभी नाइट्रोजन जैविक रूप में लम्बे समय के लिए कार्बन के साथ मिट्टी को वापिस मिल जाते हैं ।
हरी खाद के लाभ
- हरी खाद को मिट्टी में मिलाने से मिट्टी की भौतिक शारीरिक स्थिति में सुधार होता है ।
- हरी खाद से मृदा उर्वरता की भरपाई होती है
- न्यूट्रीयन् टअस की उपलब्धता को बढ़ाता है
- सूक्ष्म जीवाणुओं की गतिविधियों को बढ़ाता है
- मिट्टी की संरचना में सुधार होने के कारण फसल की जड़ों का फैलाव अच्छा होता है ।
- हरी खाद के लिए उपयोग किये गये फलीदार पौधे वातावरण से नाइट्रोजन व्यवस्थित करके नोडयूल्ज में जमा करते हैं जिससे भूमि की नाइट्रोजन शक्ति बढ़ती है ।
- हरी खाद के लिये उपयोग किये गये पौधो को जब जमीन में हल चला कर दबाया जाता है तो उनके गलने सड़ने से नोडयूल्ज में जमा की गई नाइट्रोजन जैविक रूप में मिट्टी में वापिस आ कर उसकी उर्वरक शक्ति को बढ़ाती है ।
- पौधो के मिट्टी में गलने सड़ने से मिट्टी की नमी को जल धारण की क्षमता में बढ़ोतरी होती है । हरी खाद के गलने सड़ने से कार्बनडाइआक्साइड गैस निकलती है जो कि मिट्टी से आवश्यक तत्व को मुक्त करवा कर मुख्य फसल के पौधो को आसानी से उपलब्ध करवाती है
हरी खाद प्रयोग में कठिनाईयाँ
- (क) फलीदार फसल में पानी की काफी मात्रा होती है परन्तु अन्य फसलों में रेशा काफी होने की वजह से मुख्य फसल (जो हरी खाद के बाद लगानी हो) में नत्रजन की मात्रा काफी कम हो जाती है।
- (ख) चूँकि हरी खाद वाली फसल के गलने के लिए नमी की आवश्यकता पड़ती है तथा कई बार हरी खाद के पौधे नमी जमीन से लेते हैं जिसके कारण अगली फसल में सूखे वाली परिस्थितियाँ पैदा हो जाती हैं।
हरी खाद वाली फसलें
हरी खाद के लिए दलहनी फसलों में सनैइ (सनहेम्प), ढैंचा, लोबिया, उड़द, मूंग, ग्वार आदि फसलों का उपयोग किया जा सकता है। इन फसलों की वृद्धि शीघ्र, कम समय में हो जाती है, पत्तियाँ बड़ी वजनदार एवं बहुत संख्या में रहती है, एवं इनकी उर्वरक तथा जल की आवश्यकता कम होती है, जिससे कम लागत में अधिक कार्बनिक पदार्थ प्राप्त हो जाता है। दलहनी फसलों में जड़ों में नाइट्रोजन को वातावरण से मृदा में स्थिर करने वाले जीवाणु पाये जाते हैं।
अधिक वर्षा वाले स्थानों में जहाँ जल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो सनई का उपयोग करें, ढैंचा को सूखे की दशा वाले स्थानों में तथा समस्याग्रस्त भूमि में जैसे क्षारीय दशा में उपयोग करें। ग्वार को कम वर्षा वाले स्थानों में रेतीली, कम उपजाऊ भूमि में लगायें। लोबिया को अच्छे जल निकास वाली क्षारीय मृदा में तथा मूंग, उड़द को खरीफ या ग्रीष्म काल में ऐसे भूमि में ले जहाँ जल भराव न होता हो। इससे इनकी फलियों की अच्छी उपज प्राप्त हो जाती है तथा शेष पौधा हरी खाद के रूप में उपयोग में लाया जा सकता
जैव उर्वरक (Organic fertilizers) उन उर्वरकों को कहते हैं जो जन्तुओं या वनस्पतियों से प्राप्त होते हैं। जैसे खाद, कम्पोस्ट, आदि
जैविक खेती जीवों के सहयोग से की जाने वाली खेती के तरीके को कहते हैं। प्रकृति ने स्वयं संचालन के लिये जीवों का विकास किया है जो प्रकृति को पुन: ऊर्जा प्रदान करने वाले जैव संयंत्र भी हैं । यही जैविक व्यवस्था खेतों में कार्य करती है । खेतों में रसायन डालने से ये जैविक व्यवस्था नष्ट होने को है तथा भूमि और जल-प्रदूषण बढ़ रहा है। खेतों में हमें उपलब्ध जैविक साधनों की मदद से खाद, कीटनाशक दवाई, चूहा नियंत्रण हेतु दवा बगैरह बनाकर उनका उपयोग करना होगा । इन तरीकों के उपयोग से हमें पैदावार भी अधिक मिलेगी एवं अनाज, फल सब्जियां भी विषमुक्त एवं उत्तम होंगी । प्रकृति की सूक्ष्म जीवाणुओं एवं जीवों का तंत्र पुन: हमारी खेती में सहयोगी कार्य कर सकेगा ।
जैविक
खाद निर्माण
की विधि
अब हम खेती में इन सूक्ष्म जीवाणुओं का सहयोग लेकर खाद बनाने एवं तत्वों की पूर्ति हेतु मदद ले सकते हैं । खेतों में रसायनों से ये सूक्ष्म जीव क्षतिग्रस्त हुये हैं, अत: प्रत्येक फसल में हमें इनके कल्चर का उपयोग करना पड़ेगा, जिससे फसलों को पोषण तत्व उपलब्ध हो सकें ।
दलहनी
फसलों में प्रति एकड़ 4 से 5 पैकेट राइजोबियम कल्चर डालना पड़ेगा । एक दलीय फसलों में एजेक्टोबेक्टर कल्चर इतनी ही मात्रा में डालें । साथ ही भूमि में जो फास्फोरस है, उसे घोलने हेतु पी.एस.पी. कल्चर 5 पैकेट प्रति एकड़ डालना होगा ।
इस खाद से मिट्टी की रचना में सुधार होगा, सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या भी बढ़ेगी एवं हवा का संचार बढ़ेगा, पानी सोखने एवं धारण करने की क्षमता में भी वृध्दि होगी और फसल का उत्पादन भी बढ़ेगा । फसलों एवं झाड पेड़ों के अवशेषों में वे सभी तत्व होते हैं, जिसकी उन्हें आवश्यकता होती है :-
नाडेप
विधि
नाडेप का आकार :- लम्बाई 12 फीट चौड़ाई 5 फीट उंचाई 3 फीट आकार का गड्डा कर लें। भरने हेतु सामग्री :- 75 प्रतिशत वनस्पति के सूखे अवशेष, 20 प्रतिशत हरी घास, गाजर घास, पुवाल, 5 प्रतिशत गोबर, 2000 लिटर पानी ।
सभी प्रकार का कचरा छोटे-छोटे टुकड़ों में हो । गोबर को पानी से घोलकर कचरे को खूब भिगो दें । फावडे से अच्छी तरह मिला दें ।
विधि नंबर –1 – नाडेप में कचरा 4 अंगुल भरें । इस पर मिट्टी 2 अंगुल डालें । मिट्टी को भी पानी से भिगो दें । जब पुरा नाडेप भर जाये तो उसे ढ़ालू बनाकर इस पर4 अंगुल मोटी मिट्टी से ढ़ांप दें ।
विधि नंबर-2- कचरे के ऊपर 12 से 15 किलो रॉक फास्फेट की परत बिछाकर पानी से भिंगो दें । इसके ऊपर 1 अंगुल मोटी मिट्टी बिछाकर पानी डालें । गङ्ढा पूरा भर जाने पर 4 अंगुल मोटी मिट्टी से ढांप दें ।
विधि नंबर-3- कचरे की परत के ऊपर 2 अंगुल मोटी नीम की पत्ती हर परत पर बिछायें। इस खाद नाडेप कम्पोस्ट में 60 दिन बाद सब्बल से डेढ़-डेढ़ फुट पर छेद कर 15 टीन पानी में 5 पैकेट पी.एस.बी एवं 5 पैकेट एजेक्टोबेक्टर कल्चर को घोलकर छेदों में भर दें । इन छेदों को मिट्टी से बंद कर दें ।
जैविक
खाद तैयार
करना
जैविक खाद को घर में से बनाने के कुछ उपाय निम्नलिखित हैं :
1. रसोई के कचरे से खाद बनाने की विधि
:
अनिवार्य रूप से, ग्रामीणों को रसोई के कचरे की कम पैमाने पर होने वाली एरोबिक अपघटन के बारे में बताया जाता है और उसे कैसे उपयोग में लाया जाए इस के लिए प्रशिक्षित किया जाता है । इस खाद को बनाने की विधि निम्नलिखितहैं :
· कैंटीन, होटल आदि से रसोई कचरे इकठ्ठा कर लीजिए ।
· लगभग 1 फुट गहरा
गड्ढा खोदें और
एकत्रीत कचरे को उसमें
भर लें।
· इन अपशिष्ट युक्त
गड्ढे में, लगभग
250 ग्राम
रोगाणुओं को डाला जाता
है जो अपघटन
बढ़ाने का काम
करते हैं ।
· पानी और मिट्टी की एक परत को साथ मिश्रित कर के कवर द्वारा बीछा दिया जाता है ताकि नमी की मात्रा को बनाए रखा जा सके ।
· इसे लगभग 25-30 दिनों के लिए इसी तरह के रूप में छोड़ दिया जाता है और अपशिष्ट माइक्रोबियल अमीर खाद में परिवर्तित हो जाता है ।
इस प्रक्रिया को हर 30 से 35 दिनों के बाद दोहराया जा सकता है ।
2. सूखी
जैविक उर्वरक:
सूखी जैविक खाद ,को इन में से किसी भी एक चीज़ से बनया जा सकता है - रॉक फॉस्फेट या समुद्री घास और इन्हे कई अवयवों के साथ मिश्रित किया जा सकता है।लगभग सभी जैव उर्वरक पोषक तत्वों की एक व्यापक सारणी प्रदान करते हैं, लेकिन कुछ मिश्रणों को विशेष रूप से नाइट्रोजन, पोटेशियम, और फास्फोरस की मात्रा को संतुलित रखने के लिए और साथ ही सूक्ष्म पोषक तत्व प्रदान करने के लिए तैयार किया जाता हैं।
वर्तमान समय में अनेक वाणिज्यिक मिश्रण उपलबद्ध हैं तथा अलग-अलग संशोधन के मिश्रण से इन्हे खुद भी बना सकते हैं।
3. तरल जैव उर्वरक
इस खाद को चाय के पत्तो से या समुद्री शैवाल से बनाया जा सकता है । तरल उर्वरक का प्रयोग पौधो में पोषक तत्वों को बढ़ावा देने के लिए किया जाता है इसे हर महीने या हर 2 सप्ताह में पौधो पर छिड़का जा सकता है । एक बैग स्प्रेयर की टंकी में तरल जैव उर्वरक के मिश्रण को भर कर पत्ते पर स्प्रे कर सकते है ।
4. विकास
बढ़ाने वाले
उर्वरको का प्रयोग
वह उर्वरक जो कि पौधों को मिट्टी से अधिक प्रभावी ढंग से पोषक तत्वों को अवशोषित कर सकने मे मदद करते हैं।सबसे आम विकास बढ़ाने वाला उर्वरक सिवार है जो समुद्री घास की राख से बनता है । यह सदियों से किसानों के द्वारा इस्तेमाल किया गया है ।
5. पंचगाव्यम्
' पंच ' शब्द का अर्थ है पांच, और 'गाव्यम्’शब्द का अर्थ है गाय से प्राप्त होने वाला तत्व ।यह उर्वरक प्राचीन काल से भारतीयों द्वारा इस्तेमाल किया जाता रहा है. इस खाद को बनाने की विधि निम्नलिखित हैं :
· एक मटका लें।
· उसमें गाय का दूध, दही , मक्खन, घी , मूत्र, गोबर और निविदा नारियल डाल लें ।
· लकड़ी की छड़ी की मद्द से अच्छी तरह से मिलाएं ।
· तीन दिनों के लिए मिश्रण युक्त बर्तन को बंद कर के रखें।
· तीन दिनों के बाद केले और गुड़ को उसमें डाल दें ।
· इस मिश्रण को हर रोज (21 दिनों के लिए) मिलाते रहें, और यह सुनिश्चित करें की मिश्रण को मिलाने के बाद बर्तन को अच्छे से बंद कर लें.
· 21 दिनों के बाद मिश्रण से बु उत्पन्न होने लगती है ।
· फिर पानी के 10 लीटर के मिश्रण के 200 मिलीलीटर तैयार मिश्रण मिला लें और पौधों पर स्प्रे करें।
जैविक खाद बनाने के लिए आम घरेलू खाद्य सामग्री
· ग्रीन चाय - हरी चाय का एक कमजोर मिश्रण पानी में मिला कर पौधों पर हर चार सप्ताह के अन्तराल पर इस्तेमाल किया जा सकता है(एक चम्मच चाय में पानी के 2 गैलनध)।
· जिलेटिन - जिलेटिन खाद पौधों के लिए एक महान नाइट्रोजन स्रोत हो सकता है , हालांकि ऐसा नहीं हैकी सभी पौधों नाइट्रोजन के सहारे ही पनपे। इसे बनाने के लिए गर्म पानी की 1 कप में जिलेटिन कीएक पैकेज भंग कर के मिला ले, और फिर एक महीने में एक बार इस्तेमाल के लिए ठंडे पानी के 3 कपमिला लें ।
· मछलीघर का पानी –
मछलीघर टैंक से पानी बदलते समय उसका पानी पौधों को देने के काम आ सकता है । मछली अपशिष्ट एक अच्छ उर्वरक बनाता है।
इस प्रकार के खाद सस्ते और बनाने में आसान होते हैं और साथ ही बहुत प्रभावी भी होते हैं इनके प्रयोग से मिट्टी और फसल की गुणवत्ता में काफी सुधार होता है, जिन में से कुछ निम्नलिखित हैं :
खाद, मिट्टी की
संरचना में सुधार
लाता है, जिसके
कारण मिट्टी में
हवा का प्रवाह
अच्छे से संमभ्व
हो पाता है
, जल निकासी में
सुधार होता है
और साथ ही
साथ पानी के
कारण होने वाली
मिट्टी का कटाव
भी कम कर
हो जाता है
।
खाद
मिट्टी में पोषक
तत्वों को जोड़
देता है ताकी
उन्हे पौधें आसानी
से सोख़ सकें
और उन्हे पोषक
तत्वों को लेने
में आसानी हो
तथा फसल की
पैदावार अच्छी हो जाये।
खाद
मिट्टी की जल
धारण करने की
क्षमता में सुधार
लाता है ।
इस कारण सूखे
के समय में
भी मिट्टी मे
नमी बनी रहती
है।
मिट्टी
में खाद मिलाने
से फसल में
कीट कम लगते
हैं और फसल
की रोगप्रतीरोधक छमता
में वृद्धिहोती हैं
।
खाद,
रासायनिक उर्वरकों से कई अधीक
फायदेमदं हैं । रासायनिक उर्वरकों पौधों
को तो लाभ
पहुँचातें हैं किन्तु इनसे
मिट्टी को कोई
फायदा नहीं पहुँचता है
। ये आम
तौर पर उसी
ऋतु में पैदावार बढ़ाते
है जिसमें इनका
छिड़काव कियाजाता हैं । क्योंकि खाद
मिट्टी को पोषक
तत्व प्रदान करती
है और मिट्टी
की संरचना में
सुधार लाती है
, इस वज़ह से
इसकेलाभकारी प्रभाव लंबे समय
तक चलते है
।
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